पीनस* में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
कंधा भी कहारों को बदलते नहीं देते
*पालकी
मिर्ज़ा ग़ालिब
शायराना सी हैं जिंदगी की फ़िज़ा
पीनस* में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
कंधा भी कहारों को बदलते नहीं देते
*पालकी
मिर्ज़ा ग़ालिब
कहते हो, न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ, कि गुम कीजे, हम ने मुद्दआ पाया
नक़्श फ़रियादी है, किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन, हर पैकर-ए-तस्वीर का
काव-काव-ए सख़्तजानीहा-ए-तन्हाई, न पूछ
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का
जज़्ब:-ए-बेइख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिये
सीन:-ए-शमशीर से बाहर है, दम शमशीर का
आगही, दाम-ए-शुनीदन, जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ़ ‘अ़न्क़ा है, अपने ‘आ़लम-ए-तक़रीर का
बसकि हूँ, ग़ालिब, असीरी में भी आतिश-ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश-दीद़: है हल्क़: मिरी ज़ंजीर का
-मिर्ज़ा ग़ालिब
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता ।